न्यायमूर्ति डी. भारत चक्रवर्ती ने कहा कि यौन उत्पीड़न के खिलाफ महिलाओं के कार्यस्थल पर (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 (POSH अधिनियम) की धारा 9 द्वारा निर्धारित छह महीने की सीमा अवधि से बंधा नहीं जा सकता है।
यह फैसला उन महिलाओं के लिए राहत की खबर है जो कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न का सामना करती हैं, खासकर उन मामलों में जहां उत्पीड़न एक बार की घटना होती है, लेकिन इसका पीड़िता पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
निचली अदालत का फैसला पलटा
यह फैसला मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा एकल न्यायाधीश के फैसले को चुनौती देने वाली अपील पर आया है। निचली अदालत ने माना था कि यौन उत्पीड़न का एक पृथक मामला सीमा अवधि के अधीन आता है और शिकायत दर्ज करने में देरी के कारण खारिज कर दिया गया था।
उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि सीमा अवधि यौन उत्पीड़न के गंभीर और निरंतर प्रकृति के प्रभावों को खत्म नहीं करती है।
न्यायमूर्ति चक्रवर्ती ने अपने फैसले में कहा
“यह सर्वविदित है कि यौन उत्पीड़न का गंभीर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ सकता है, जिससे पीड़िता को शिकायत दर्ज करने में देरी हो सकती है। आघात के बाद का तनाव और डर पीड़िता को यह कदम उठाने से रोक सकता है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि सीमा अवधि का उद्देश्य बचाव पक्ष के लिए सबूत जुटाने में कठिनाई को रोकना है, न कि पीड़िता के अधिकारों को खत्म करना।”
उन्होंने यह भी कहा कि अदालत को इस बात का सबूत ढूंढना चाहिए कि देरी से शिकायत दर्ज करने से बचाव पक्ष को वास्तव में कोई पूर्वाग्रह हुआ है या नहीं।
महिलाओं के लिए सशक्तिकरणकारी फैसला
यह फैसला कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न का सामना करने वाली महिलाओं के लिए सशक्तिकरणकारी है। यह पीड़िताओं को यह आश्वासन देता है कि कानून उनके पीछे है, भले ही घटना एक बार की ही क्यों न हो।
यह फैसला यौन उत्पीड़न के मामलों की जांच करने वाली समितियों (ICs) को भी संवेदनशील बनाने का काम करता है। समितियों को अब यह समझना चाहिए कि यौन उत्पीड़न के दीर्घकालिक प्रभाव हो सकते हैं और देरी से शिकायत दर्ज करना इसका एक संकेत हो सकता है।
यौन उत्पीड़न के विभिन्न रूप
मद्रास उच्च न्यायालय का यह फैसला यौन उत्पीड़न के एक विशिष्ट उदाहरण पर केंद्रित है, लेकिन यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के कई रूप हो सकते हैं। POSH अधिनियम यौन उत्पीड़न की निम्नलिखित परिभाषा देता है:
- अवांछित शारीरिक संपर्क या अग्रिम: इसमें किसी व्यक्ति को छूना, चुटकी लेना, गले लगाना या किसी अन्य प्रकार का अवांछित शारीरिक संपर्क शामिल है।
- अवांछित यौन सुझाव या अनुरोध: इसमें यौन संबंध बनाने, यौन कृत्य करने या यौन प्रकृति की टिप्पणी करने के लिए दबाव डालना शामिल है।
- यौन प्रकृति की कोई भी मांग या मांग का वादा या धमकी: इसमें पदोन्नति, वेतन वृद्धि या अन्य लाभों के वादे के बदले में यौन संबंध बनाने का दबाव डालना शामिल है।
- यौन प्रकृति का वातावरण उत्पन्न करना: इसमें यौन चुटकुले सुनाना, अश्लील सामग्री प्रदर्शित करना या यौन प्रकृति के चित्र प्रदर्शित करना शामिल है।
- किसी व्यक्ति की लैंगिकता के संबंध में अपमानजनक व्यवहार: इसमें किसी व्यक्ति की उपस्थिति, कपड़े या शरीर के किसी अंग के बारे में टिप्पणी करना शामिल है।
यह सूची संपूर्ण नहीं है, और यौन उत्पीड़न के अन्य रूप भी हो सकते हैं।
पीड़िता को समर्थन प्राप्त करना
यदि आप कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं, तो यह महत्वपूर्ण है कि आप अकेले न महसूस करें। कई संसाधन उपलब्ध हैं जो आपकी मदद कर सकते हैं। आप अपनी कंपनी की आंतरिक शिकायत समिति (ICC) से संपर्क कर सकते हैं। आप किसी गैर-सरकारी संगठन (NGO) से भी संपर्क कर सकते हैं जो यौन उत्पीड़न के मामलों में सहायता प्रदान करता है।
निष्कर्ष
मद्रास उच्च न्यायालय का फैसला कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से निपटने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। यह फैसला पीड़ितों को न्याय दिलाने और कार्यस्थलों को सभी के लिए सुरक्षित बनाने की दिशा में एक सकारात्मक कदम है।
क्या वाकई सिर्फ एक बार की घटना यौन उत्पीड़न मानी जा सकती है?
मद्रास हाईकोर्ट के ताजा फैसले ने इस मुद्दे को गरमा दिया है। ये फैसला कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न का सामना करने वाली महिलाओं के लिए तो राहत की खबर है, लेकिन ये कई सवाल भी खड़े करता है। आइए जानते हैं पूरा मामला और कोर्ट के फैसले की खास बातें…
क्या हुआ था?
हाल ही में एक महिला कर्मचारी ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराई। लेकिन देरी से शिकायत दर्ज कराने के कारण कंपनी की ICC और निचली अदालत ने उसकी शिकायत खारिज कर दी।
लेकिन मद्रास हाईकोर्ट ने पलट दिया पूरा खेल!
मद्रास हाईकोर्ट ने चौंकाने वाला फैसला सुनाते हुए कहा कि यौन उत्पीड़न का सिर्फ एक मामला भी “निरंतर अपराध” माना जा सकता है, अगर वो गंभीर प्रकृति का हो और पीड़िता पर मानसिक रूप से गहरा असर डाले। इसका मतलब है कि अगर यौन उत्पीड़न की घटना गंभीर है और पीड़िता को लगातार आघात पहुंचा रही है, तो देरी से शिकायत को खारिज नहीं किया जा सकता।
लेकिन ये फैसला कहीं गलत रास्ते पर तो नहीं ले जा रहा?
मद्रास हाईकोर्ट का ये फैसला जहां पीड़िताओं को न्याय दिलाने में मददगार है, वहीं ये एक खतरनाक सवाल भी खड़ा करता है। क्या अब हर छोटी-मोटी घटना को यौन उत्पीड़न माना जाएगा? इस वजह से कहीं कार्यस्थल पर झूठे आरोपों का सिलसिला ना शुरू हो जाए?
क्या कहते हैं जानकार?
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि कोर्ट का इरादा सही है, लेकिन फैसले की व्याख्या सावधानी से करनी होगी। गंभीर यौन उत्पीड़न की घटनाओं को ही “निरंतर अपराध” माना जाना चाहिए, ना कि हर बात को।
आपकी क्या राय है?
ये फैसला कितना सही है? क्या ये वाकई यौन उत्पीड़न के मामलों में क्रांतिकारी बदलाव लाएगा, या फिर ये उल्टा फायर साबित होगा? कमेंट करके अपनी राय जरूर दें।